Wednesday, November 18, 2009

कैसी ये नाइंसाफी है..



जीवन वृक्ष की डाल पवन झोकों से प्रतिरक्षा कर रही,
दहेली पर आगमन को तैयार हर पल की सुरक्षा को लड़ रही.
उम्मीदों की कड़ी कांच के टुकडों की भांति जमी पर बिखर गयी,
मनुष्य के राह की मंजिल बस धन के पड़ाव पर आकर ठहर गयी.


चंद कागज के टुकडों की लालसा ने नैतिकता को घुन लगा दिया,
हर किसी को भौतिकता की अंधी दौड़ में शामिल करा लिया.
मानवता को आज लोगों ने फरेब के चुल्लू भर पानी में डुबो दिया,
शरीर के एक-एक कतरे को बेईमानी के कालिख जल से भिगो दिया.


योग्यता कर्म-स्थल पर कसौटी का द्वितीयक पैमाना बना,
हर कोई गरीब इस नाइंसाफी का आसान निशाना बना.
मजदूर आदमी ने अपने खून पसीने से नव भारत का सृजन किया,
वातानुकूलित कक्ष में बैठे किसी अधिकारी ने श्रेय लिया, खुद की महिमा का वर्णन किया.


बुराई का दानव सत्ता के गलियारों की शान बना, हर ओर झूठ का आवरण छा गया,
देश झूठे सपनों व बयानों से आभासी रोशनी में जगमगा गया.
सड़कों में सोने वाले वही पैदा हुए और वही बेचारे भूख से एक दिन मर गए,
अजीब सी बात है सत्ता के लोग ये सब भूल, एक रात बिताने किसी दलित के घर गए.

4 comments:

  1. waaaaaah ...ye to kadva vala sach ho gaya ..bhut khoob likha hai aapne..very nic

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  2. बुराई का दानव सत्ता के गलियारों की शान बना, हर ओर झूठ का आवरण छा गया,
    देश झूठे सपनों व बयानों से आभासी रोशनी में जगमगा गया.
    सड़कों में सोने वाले वही पैदा हुए और वही बेचारे भूख से एक दिन मर गए,
    अजीब सी बात है सत्ता के लोग ये सब भूल, एक रात बिताने किसी दलित के घर गए.

    आपकी कविता में सम्भावना नज़र आती है ......!!

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